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कविता

काश-१

प्रतिभा गोटीवाले


जब भी याद आती हैं पुरानी बातें
तो हँस पड़ता हूँ सोचकर
कि कैसे
तुम खिलाती थी
हर एक बात पर कसम
खाने की कसम,
खत लिखने की कसम,
घर जल्दी लौटने की कसम
मैं हँसकर कहता था...
यार ! क्या आम की तरह
मर्तबानों में भर रखे हैं तुमने
कसमों के अचार, चटनी, मुरब्बे
हर बात के साथ
एक लपेट कर दे देती हो
तुम कहती कुछ नहीं थी
बस हँस देती थी
आज जब तुम नहीं हो कहीं
बेहद याद आते हैं
कसमों के वो खट्टे, मीठे, कसैले स्वाद
मन में लिए एक आस
घूमता हूँ गली दर गली खानाबदोश
ये सोचता हुआ
काश... कहीं रोक ले कोई
मीठी सी एक कसम देकर...।


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